Wednesday, January 12, 2011

चकमक क्‍लब

http://chakmakclub.blogspot.com/चकमक क्‍लब

चकमक क्‍लब: ham our wo

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ham our wo

क्या कभी सपने सच होते हे ये सवाल एक बच्चे ने पूछा तो में सोच में पद गया उसने कहा अगर एसा होता तो हम आजाद होते समाज के बन्धनों से और खेलते अपने उन साथियों के साथ जो समाज की नजर में अछूत हे क्या कभी एसा होगा की हम अपने जेसे उन सारे लोगो को जो बरसो से पीड़ित और शोषित हे अपना कह सकेगे क्या कभी कोई अपनी मर्जी से शादी करके जिन्दा रह पायेगा एस बर्बर समाज में उन्हें जीने का अधिकार मिलेगा
पर जब में देखता हु की हमरे यहाँ जो लोग भूक से मर रहे हे और लगातार आत्मदाह कर रहे हे उन्हें यह कहकर लज्जित कीया जाता हे की वो अपने पिछले पापो की सजा भुगत रहे हे क्या गरीब लोग ही पाप करते हे अगर पापो की सजा मिलती हे तो उस आदमी को कब मिलेगी जिसने समाज को अलग अलग तबको में बात दिया हे 

Saturday, December 25, 2010

hamri pahal jaroori he

हम सोचते हे की हम जो कुछ कर रहे हे वो दुसरो के लिए कर रहे हे ! पर यह धरना अपने मन को समझने के लिए मात्र हे

Wednesday, December 15, 2010

ये तो ऐसे ही हैं ? - चन्दन यादव

ये तो ऐसे ही हैं ? - चन्दन यादव
                              
                             सरकारी स्कूलों में जब किसी बच्चे से अपेक्षित काम उससे नहीं हो रहा होता है तब अक्सर सुनाई देने वाली कुछ टिप्पणियां इस तरह की होती हैं, ये नहीे सुधरेंगे। ये तो हैं ही ऐसे। ये तो जन्मजात बुद्धिहीन हैं। इनके मां बाप ही ऐसे हैं। ये तो हैं ही संस्कारहीन। षिक्षकों द्वारा बच्चों पर आरोपित की गई इन टिप्पणियों का मकसद यह प्रतिपादित करना होता है कि बच्चों के नहीं सीखने के लिये उनका परिवार, परिवेष, जाति या धर्म जिम्मेदार है।
स्कूल में बच्चों को सिखाना षिक्षक का काम है। अगर बच्चे नहीं सीख पा रहे हैं तो सबसे पहले उन्हें अपने काम करने के तरीके की समीक्षा करनी चाहिये। वे सोच सकते हैं कि कमजोर बच्चों को सिखाने के लिये उन्होंने क्या कोषिषें की हैं। क्योंकि यह उन्हीं से अपेक्षित है कि बच्चे सीख पायें, पर बच्चे के परिवार, समाज या धर्म को इसके लिये जिम्मेदार ठहराकर जाहिर तौर पर वे खुद की जिम्मेदारी के बारे में विचार करने से साफ बच जाते हैं। इन टिप्पणियों में यही उजागर होता है कि हमने तो अपना काम अच्छी तरह किया है अगर बच्चे ही ऐसे हैं तो हम क्या कर सकते हैं ? मगर यह पूरा सच नहीे है, क्योंकि जब वे ये टिप्पणियां कर रहे होते हैं तब उनसे कोई यह पूछ नहीं रहा होता है कि बच्चों के नहीं सीख पाने का क्या कारण है ? दरअसल षिक्षकों के ऐसा कहने के जो कारण हैं वे इससे कहीं अधिक गंभीर और चिंतनीय हैं जो इसकी गहरी पड़ताल की मांग करते हंै।
कक्षा के अन्दर की कुछ घटनाओं के उदाहरण से हम इस बात को समझने का प्रयास कर सकते हैं। एक बार एक षिक्षक ने बच्चों के कमजोर रह जाने का एक नायाब कारण मुझे बताया, उन्होंने कहा कि  क्या है कि ये बच्चे हैं मुसलमान। घर से बासा मटन, मछली खाकर आते हैं। फिर होता यह है कि किसी का पेट दुख रहा है, किसी को टट्टी लग रही है। अब बताओ ऐसे में पढ़ने में कैसे मन लगेगा ?
जाहिर है वे बच्चों के खानपान को उनके सीखने, ना सीखने से जोड़कर देख रहे थे। इस कहने में यह भी निहित था कि तथाकथित सात्विक खानपान सीखने में ज्यादा मददगार होता है।
एक और षिक्षिका अक्सर कहती रहती हैं कि इन बच्चों के मां बाप दारू पीकर पड़े रहते हैं, इसलिये ये बच्चे कभी नहीं सीख सकते। किसी बच्चे के मां बाप अपने घर में दारू पीते हैं, इस बात का स्कूल के अन्दर सीखने सिखाने पर क्या असर पड़ सकता है। घर में दारू पीने और स्कूल के अन्दर बच्चे के सीखने में कोई रिष्ता नहीं है, क्योंकि ऐसा होने से किसी षिक्षक के पढ़ाने के तरीके प्रभावित नहीं होते। “
इतना जरूर है कि स्कूल में जो बच्चे पढ़ने आ रहे हैं, उनके परिवार के लोग पढ़े लिखे नहीं हैं इसलिये वे घर में बच्चे के सीखने में कोई मदद नहीं कर पाते। पर यह बात स्कूल आ रहे लगभग सभी बच्चों के मां पिता पर लागू होती है।
ऊपर जिन टिप्पणियों का जिक्र किया गया है, वे प्राइवेट स्कूलों में षायद ही सुनाई दें। इन स्कूलों में भी बच्चों के मनोबल को तोड़ा जाता है पर उसके तरीके दूसरे होते हैं जो इस लेख का विषय नहीं है।
                      दरअसल बच्चों के ना सीखने पर उनके परिवार, परिवेष, जाति अथवा धर्म को जिम्मेदार ठहराने की कोषिषों के पीछे खुद की नाकामी को छुपाना उतना बड़ा कारण नहीं है, जितने बड़े दूसरे अन्य कारण हैं, जो समाज के अन्य लोगों खासकर वंचित तबके के लोगों को लेकर षिक्षकों की खास समझ को दर्षाते हैं। हमारे समाज में कई तबकों को लेकर कुछ पूर्वाग्रह मौजूद हैं। गोंड समुदाय के बारे में एक कहावत है गोंड के घर में दाना, गोंड गया गर्राना। जिसका मतलब यह है कि गोंड के घर में खाने को दाने हों तो वह काम पर नहीं जाता। यानि गोंड सिर्फ खाने की चिंता करते हैं। यह भी माना जाता है कि बुद्धि जन्मजात होती है तथा यह ऊंची जाति के लोगों में ज्यादा होती है। इसी तरह स्त्रियों के बारे में भी कई नकारात्मक पूर्वाग्रह मौजूद हैं। लोग इन की सच्चाई पर बिना कोई सवाल किये इनको ही सच मानते आ रहे हैं। मन में जड़ जमाये बैठे इस तरह के पूर्वाग्रह ही किसी खास तबके को आरोपित करते समय जाहिर हो रहे होते हैं।
षिक्षक की ऐसी टिप्पणियां बच्चों को उनकी विपरीत परिस्थितियों से उबारने के बजाय उनमें हीनता बोध पैदा कर रहे होते हैं। निष्चित ही बच्चों के स्कूल छोड़ देने और ना सीख पाने में इन टिप्पणियों का योगदान भी कम नहीं होता होगा ?
                                       बींदकंदेंउअंक/ ह उंपसण्बवउ

Tuesday, December 14, 2010

पाठयपुस्तकें बनीं हिन्दुत्व के प्रसार का जरिया
                                     

                        अगर पढ़ने लिखने सोचने और अभिव्यक्त करने के कौषल को इस देष की बहुरंगी संस्कृति और धार्मिक विविधता से काटकर विकसित करने की सचेत कोषिष की जाये तो आज के बच्चे कल कैसे नागरिक बनेंगे ?                                   
                    यह सवाल म प्र में चल रही कक्षा पहली से पांचवी तक की पाठ्यपुस्तको को देखते हुए मेरे मन में कौंधा है। इन पुस्तकों के बारे में राज्य षिक्षा केन्द्र का कहना है कि इनमें मानवीय प्रेम, साम्प्रदायिक सदभाव, प्रकृति तथा पर्यावरण सम्वेदना और राष्ट्रप्रेम आदि मुल्यपरक विषयवस्तु को संजोने का प्रयास किया गया है। जाहिर सी बात है कि इन मूल्यों को बच्चों तक पहुंचाने के लिये इससे सम्बंधित विषयवस्तु को किताबों में ष्षामिल किये जाने की जरूरत होगी। पर इन किताबों को देखते हुए हम पाते हैं कि इनमें मानवीय प्रेम, प्रकृति ओर प्र्यावरण के प्रति सम्वेदना और  राष्ट्रप्रेम को दर्षाने वाले पाठ तो हैं मगर साम्प्रदायिक सद्भाव को दर्षाने वाले पाठ नदारद हैं।
                    पहली से पांचवीं तक की पाठ्यपुस्तकों में 125 से अधिक पाठ हैं। ये पाठ जिनपर हैं, उनमें युधिष्ठिर और श्रवण कुमार जैसे पौराणिक नायक, स्वामी विवेकानन्द, कालिदास, टैगौर आदि चिंतक और कवि हैं। दुर्गावती और लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाएं हैं। और आजादी की लड़ाई के नायक गांधी, भगतसिंह, चन्द्रषेखर आजाद, नेहरू, सरदार पटेल और लालबहादुर षास्त्री हैं। इस बात को खुद मानते हुए और इसका सम्मान करते हुए कि भारत में रहने वाले सभी धर्म के लोग इन सभी को अपना नायक मानते थे, यह तथ्य गौण नहीं हो सकता कि इन सभी नायकों की धार्मिक पहचान हिन्दुओं के रूप में थी। क्या इन पर लिखे गये पाठों को षामिल करते हुए किसी को भी बहादुरषाह जफर, सीमांत गांधी और अषफाक उल्लाह खां याद नहीं आये होंगे ? क्या किसी को यह भी याद नहीं रहा होगा कि किताबों का एक महत्वपूर्ण और घोषित उद्देष्य बच्चों में साम्प्रदायिक सद्भाव का मूल्य विकसित करना भी है। मुझे लगता है कि इस बात पर ध्यान ना जाना असम्भव है। इसलिये यह मानना ही ठीक होगा कि ऐसा जानबूझकर किया गया है।
                     इन किताबों के बाकी पाठ और कविताओं में जितने भी पात्र हैं उनके नाम से उनकी हिन्दू पहचान जाहिर होती है। इसके कुछ बहुत गौण अपवाद भी हैं। मसलन हमारी जनजातीय कलाएं पाठ में फातिमा है। अकबर हैं पर वे बीरगल की चतुराई दर्षाने वाले पाठ में हैं। रहीम के दोहे हैं, प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह है। और पूर्व राष्ट्रपति अबुल कलाम आजाद की एक चिट्ठी है। इसके बरक्स किताबों में हिन्दू पात्रों, चित्रों और हिन्दू पहचान की जो बहुतायत है वह इनको विस्मृत करवा देने के लिये पर्याप्त है।
                      हिन्दुओं के अलावा इस देष के के बाकी सभी धर्म के लोगों और उनकी पहचान की अनदेखी पहली से पांचवी तक की सभी किताबों में सर्वत्र नजर आती है। त्यौहारों के अन्तर्गत होली, दीपावली, राखी और मकर सक्रांति पर पाठ हैं पर क्रिसमस और ईद नदारद है ऐसा करते हुए विषयवस्तु निर्धारकों को यह भान था कि वे क्या अनर्थ करने जा रहे हैं।इसलिये कक्षा तीसरी की भाषा भारती के अन्त में जो प्रष्नावली दी गई है उसमें आधे पृष्ठ पर दषहरा, दीपावली, स्वतंत्रता दिवस, ईद ओर किसमस को दर्षाने वाले चित्र देकर बच्चों से चित्र देखकर त्यौहारों का वर्णन करने के लिये कहा गया है। पहली से पांचवी तक की भाषा भारती में यह इकलौता आधा





पन्ना है जिसके चित्रांकन में गैर हिन्दू लोग और उनकी पहचान के चिन्ह दिखाई देते हैं। बाकी बचे पन्नों के चित्रांकन में हिन्दुत्व का वर्चस्व पसरा हुआ है।
                      दूसरी से पांचवी तक हर किताब की षुरुआत प्रार्थना से हुई है।ये प्रार्थनाएं ईष्वर और भगवान को सम्बोधित है। जब हम इन प्रार्थनाओं, किताब की विषयवस्तु और चित्रांकन को मिलाकर देखते हैं तो इस बात में कोई षक नहीं रह जाता कि ये किताबें हिन्दुओं के
द्वारा हिन्दुओं के लिये लिखी गई हैं।और इनका एकमात्र उद्देष्य हिन्दुत्व का प्रसार प्रचार करना है।
                      तो क्या यह घोषणा झूठी है कि इनसे मानवीय प्रेम, साम्प्रदायिक सद्भाव, और राष्ट्रप्रेम जैसे मूल्य विकसित होंगे। दरअसल यह घोषणा भी सच है, पर इसमें इतना और निहित मान लीजिये कि मानवीय प्रेम में जो मानव है वह हिन्दू मानव है। साम्प्रदायिक सद्भाव से आषय हिन्दुत्व को मानने वालों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव से है। बचा राष्ट्रप्रेम तो उसका मतलब हिन्दू राष्ट्र से प्रेम है। आखिर एजेण्डा तो हिन्दू राष्ट्र बनाना ही है, उसी के लिये तो पाठ्यपुस्तकों के साथ यह कवायद की गई है।     
                    
                                                              

हमारे द्वारा सतवास के आसपास के गांवों में बाल मेला करने की प्रक्रि‍या में बच्‍चों को जोडना

दिनांक 30/10/2010 को इकलेरा में माध्यमिक शाला में बाल मेले के आयोजन किया गया जिसमें लगभग 100 बच्चों ने भाग लिया। बाल मेला सुबह 8 बजे से शुरू हुआ था।  बाल मेले में स्रोत व्यक्ति एकलव्य से रवी भाई ,दिनेष पटेल ,दिपाली , प्रेम मनमोजी ,इमरान खान , समावेष से शाकिर पठान ,गजानंद यादव , और पहचान से आरिफ खान ,सादिक खान थे। बाल मेले में 6 गतिविधियां रखी गई ओरीगेमी ,विज्ञान के खेल,चि़त्र कला , पत्तियों का जादू ,मैदानी खैल , पुस्तकालय बाल मेले में बच्चों के साथ एक बड़ा गोला बनाया जिसमें सभी को बाल मेले के बारे में शाकिर भाई ने बताया कि हम क्या करेगें। इसके बाद आरिफ और इमरान ने बच्चों को गीत कराया के बोल थें पहाड़ी पे पेड़ था और मेरे घर मे चोर आया  इसके बाद सभी बच्चों को 6 समूह में बाटा हर समूह का एक नाम था । अमलताष , पलाष ,मोगरा ,गुलाब, गेंदा ,गुलमोहर इन समुहों में बच्चों को बाटने के बाद सभी को अलग अलग कार्नर मेें भेजा गया जहां उन्हे गतिविधियां सीखना था। आज सभी बच्चों को बहुत अच्छा लग रहा था । सभी अलग अलग समूहों मे जाकर काम कर रहे थे एक कार्नर में एक समूह को लगभग 30 मिनिट का समय दिया जाता था। जब बच्चों को टोपी बनाना सीखाया तो सभी बच्चों ने अपने अपने सर पर अपनी टोपी लगा ली दूसरे बच्चों ने कहा हम कब उस कार्नर में जाऐगें और किसी ने कागज पर रंगीन चित्र बनाऐ किसी ने पत्तियों से जानवरो के चित्र बनाऐं बाल मेले के दौरान गांव के कुछ लोग भी वहां देखने आऐ और चित्र भी बनाऐं । हमारा काम आज 12 बजे तक चला जिसमें सभी बच्चों को सब सीखने का मौका मिला है। इसके बाद हम लोगों ने षिक्षकों के साथ चर्चा की जिसमें षिक्षकों ने कहा की आज कार्यक्रम बहुत ही मजेदार रहा और हम चाहतें हैं। कि इस तरह के कार्यक्रम बच्चों के साथ यहां हमेषा होते रहें इसके बाद रवी भाई ने कहा की हम अपने साथ कुछ किताबें लाऐं है हम चाहते हैं कि बच्चों को यहां कहानी कि रोचक किताबें पढ़ने का मौका मिले और किताबों कि दूनिया के माध्यम से बच्चों को दूनिया के बारे में पता चले अगर आप लोग हमारी मदद करे तो हम यहां 15 दिन में एक बार आकर बच्चों के साथ किताबों पर काम कर सकतें है हम इसके अलावा बच्चों को अन्य गतिविधियां भी कराऐंगे इस पर षिक्षकों ने सहमति जाताई इस काम के लिए आरिफ का वहां का समय और दिन तय किया शनिवार जो कि माह का दूसरा और आखिर होगा । इस काम में आरिफ कि मदद के लिए समय समय पर अन्य साथी आतें रहेगें। और हम लोगों ने स्कूल से एक पेटी भी मांगी जिसमें हम अपनी किताबें व गतिविधि की समाग्री रख सकें जो हमें स्कूल ने उपलब्ध कराई । इस काम को अभी हम आगामी 4 माह के लिए करके देख रहे हैं। अगर इसके बाद हमें जरूरत लगी तो हम इस काम को आगे बढ़ाते हुए नया कोई प्लान बनाऐगें ताकि काम को लम्बे समय तक सुचारू रूप से चलाया जा सके इस पर भी सभी साथियों ने अपनी सहमती जताई इस काम में समावेष और पहचान के साथी लगातार मदद करते रहेगें औार काम का अवलोकन व मार्गदषन भी करते रहेगें।
                                        इमरान खान

चकमक क्‍लब की अवधारणा

चकमक क्लब की अवधारणा
भूमिका- हमारे समाज का ताना बाना इस तरह का है जिसमें बच्चों को एक खास तरह की वंचितता में अपना बचपन बिताना होता है। यह वंचितता है बच्चों के लिये अपना कौषल बढ़ाने के लिये काम करने, अपनी समझ और अनुभवों को दूसरों के साथ साझा करने, पहल करने और निर्णय लेने के मौकों का अभाव।
बच्चों के बारे में आम धारणा है कि वे खुद से सोचने, समझने, निर्णय लेने और किसी बात पर अपने विचार व्यक्त करने में सक्षम नहीं होते। परिवार और स्कूल दोनों ही इस बात को बहुत पक्की तौर पर मानते हुए दिखाई देते हैं। इसलिये बड़े बच्चों को हर काम में सहायता देने के लिये आतुर रहते हैं। इस धारणा के चलते बच्चों की क्षमताओं का सहज विकास बाधित होता है।
समाज के बड़े, बच्चों की हर गतिविधि को अपने चष्मे से देखते हैं। वे उनके काम पर अपनी राय देने और उसके बारे में निर्णायक होने के लिये लालायित रहते हैं। इसलिये बच्चे भी इस तरह अनुकूलित हो जाते हैं कि वे खुद भी अपने कामों को जिन आधारों पर अच्छा या बुरा, सही या गलत मानते हैं, वे बड़ों के बनाये होते हैं। यह स्थिति बच्चों के व्यक्तित्व को इस तरह से प्रभावित करती है कि वेे आगे भी दूसरों पर निर्भर बने रहते हैं।
इसलिये हमें लगता है कि समाज में बच्चों के ऐसे मंच होना चाहिये जहाँ उन्हें स्वतंत्रता और सहजता के साथ विभिन्न गतिविधियाँ जैसे पढ़ना, विज्ञान के प्रयोग करना, चित्र बनाना, क्राफ्ट के काम करना, लिखना, अपने आसपास को समझने के लिये छोटे छोटे अध्ययन करना जैसे मौके मिल सकें। और इनमें से बच्चे अपनी रुचि के अनुसार काम चुन सकें। 
इसके साथ ही बच्चों के इन मंचों को बड़ों के प्रभाव और दखल से भी भरसक मुक्त होना चाहिये। इनको बच्चों के लिये, बच्चों के द्वारा, बच्चों का मंच होना चाहिये। जहाँ पर बच्चे मिलजुलकर काम करें, निर्णय लें और पहल करें। इस तरह के काम के लिये उदाहरण स्वरूप ऊपर बताई गतिविधियों में बच्चों को स्रोत व्यक्ति के तौर पर तैयार करने के लिये बड़ों के सहयोग की आवष्यकता है।
इस तरह का एक प्रयोग एकलव्य द्वारा 1982 से 2004 तक देवास, होषंगाबाद और हरदा जिले के छोटे कस्बों में किया गया था। इनको चकमक क्लब कहा जाता था। इनमें से देवास जिले के सतवास से निकले बच्चों ने इस काम को समाज के लिये उपयोगी पाया। और 1 जून 2009 से सतवास में बच्चों का एक मंच बनाकर काम करना प्रारम्भ किया है। इसको अपनी जगह नाम दिया गया है।
बच्चों पर चकमक क्लब का प्रभाव- चकमक क्लब में रहे और उससे निकले बच्चों (जो अब बड़े हो गये हैं।) को देखने पर हम पाते हैं कि मिलजुलकर निर्णय लेने और काम करने की इस प्रक्रिया से निकले लोग कई उन बुराइयों से मुक्त हैं, जो हमारे समाज की मुख्य समस्या है। वे जाति, धर्म आदि की जकड़न से दूर हैं। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक और प्रगतिषील है। वे लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं। महिलाओं को समानता का दर्जा देते हैं। और अपने मूल्यों और विष्वासों को अपने से अधिकार और ताकत में बड़े लोगों के सामने आत्मविष्वास के साथ रख पाते हैं। चकमक क्लब में रहते हुए ही कई बच्चों ने अपनी रुचि को पहचाना और उसमें अपनी क्षमताओं को आगे बढ़ाया। हम चकमक क्लब से निकले लगभग ऐसे 100- 150 लोगों को जानते हैं जिन्होंने जीवन यापन के लिये सरोकारपूर्ण काम चुना है।
समाज पर प्रभाव- इस काम का स्थानीय समाज पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिये सतवास के वे षिक्षक ओर पालक जो चकमक क्लब से जुड़े बच्चों को जानते हैं। वे मानते हैं कि चकमक क्लब में जाने वाले बच्चे आत्मविष्वास से भरे और पहल लेने वाले होते थे। स्थानीय लोग चकमक क्लब के बच्चों पर भरोसा करते थे। और चकमक क्लब के काम से बाहर जाने के लिये भी सहजता से अपनी लड़कियों लड़कों को इजाजत देते थे।
इमरान और सुनील के अनुभव- चकमक क्लब को समझने के लिये दो अनुभवों को पढ़ना मददगार हो सकेगा। इमरान ने एक बच्चे के तौर पर खुद के चकमक क्लब से जुड़ने और वहाँ से सीखने की प्रक्रिया का वर्णन किया है।
सुनील ने वहाँ के अनुभव पर एक लेख लिखा है। जो ‘षैक्षिक विमर्ष’ (दिगन्तर, जयपुर का प्रकाषन)में प्रकाषित हुआ है।

सुनि‍ल के अनुभव चकमक क्‍लब को लेकर

जहां सबका सम्मान होता है                    -सुनील बागवान
    नये कपड़े पहने हुए हो, सर में तेल डाला हो, नाजुक हो, गोरा रंग और मृदुभाषी हो........ आदि विषेषताएं लिए हुए बच्चों के प्रति सहज ही किसी को भी प्रेम उमड़ आता है।
    लेकिन जिसके कपड़े फटे-पुराने हो, रंग भी काला हो, कद ठिगना हो, चर्मकार मोहल्ले में रहता हो, बातचीत के लिए भाषा समृद्ध ना हो (तुलनात्मक) और पढ़ाई, पेंटिंग या अन्य विधाओं में पिछड़ा हो (मौके न मिल पाने के कारण) तो ऐसे बच्चे समाज में ज्यादातर लोगों की हिकारत के पात्र होते हैं।
    कुछ लोग होते हैं जिनके आसपास ऐसी घटना घटे तो उनका मन पसीज जाता है, वे उस तिरस्कृत बच्चे को प्रेम किये बिना रोक नहीं पाते। मगर अफसोस होना हमारे समाज में कोई सामान्य घटना नहीं है।
    यह बातें पता नहीं कितने लोगों को विवादास्पद लगे? मगर मेरे बचपन में मैं इन्हीं खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरा हूं और उन घटनाओं को याद करता हूं तो मुझे लगता है कि एक फिसड्डी, कमजोर, चुप रहने वाले और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारो में जन्में बच्चों में भी आत्म विष्वास आत्म सम्मान को बनाए रखने और प्रोत्साहन पाने के लिए किसी का व्यवहार, आसपास के लोगों की प्रतिक्रियाएं, नजरिया बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ उदाहरणों से मैं इसे समझाने का प्रयास करता हूँ।
    सन 1992-93 में हम गर्मी की छुट्टी में किसी दिन चकमक क्लब में गोल घेरा बनाकर किसी भ्रमण (नदी पर गये थे) से लौटने के बाद भ्रमण के बारे में चर्चा कर रहे थे। मेरी बोलने की बारी आयी और मैं बोलने वाला ही था कि कुछ लोग मेरी फटी पैंट देख कर हंस रहे थे, क्योंकि मेरी चड्ढी (न्दकमतूमंत) भी दिखाई दे रही थी। इस घटना पर वहां के संयोजक ने 5 मिनट भाषण दिया और सब चुप हो गये थे। मुझे आज भी नहीं मालूम कि चकमक क्लब संयोजक ने क्या कहा था क्योंकि उस समय तो मैं अपने फटे कपड़ों पर हो रही हंसी के कारण रूआसा हो गया था। मगर पल भर में समूह के सब लोग मेरी बात सुनने को तैयार हो गये थे।
    उसी समय की बात है मेरे एक दोस्त की हालत तो और भी नाजुक थी। उसके माता पिता हमेषा पुराने कपड़े खरीदकर ही अपने परिवार की जरूरते पूरी करते थे। उस दोस्त के लिए नये कपड़े भी दूसरों के लिए पुराने होते थे और उसकी नये कपड़ों की खुषी में कोई साथ नहीं होता था। सब उसे ‘‘लिलामी कपड़े’’ कहकर चिढाते थे, हंसते थे। पुराने कपड़ों के कारण हंसी का पात्र बनने वाला वह दोस्त चकमक क्लब आने पर संयोजक (षाकीर पठान) से ही बात करता था। शाकीर भाई भी उससे प्रेम से बात करते थे। उसे कुछ न कुछ करने के लिए रोचक काम देते थे चित्र बनाना, पजल्स के साथ माथापच्ची करना, कोई अच्छी चित्र कहानी की किताब देना......... आदि। वह तरह-तरह के मिट्टी के खिलौने बनाता था और भैंस चराता था। मिट्टी की बांसुरी बनाना और भैंस पर बैठकर बजाना उसका पसंदीदा काम था और इसी में शामिल है उसका तार की गाड़ी चलाना। जब वो कभी तार की गाड़ी, मिट्टी की बांसुरी आदि चीजें लेकर आता तो शाकीर भाई उसकी इस अदा को सबके सामने सम्मान पूर्वक तरीके से रखते थे। कुछ दिनों में वो पुराने कपड़े पहनने वाला लड़का सबका प्रिय दोस्त बना। उससे कई दोस्तों ने बांसुरी बनाना और बजाना सीखा (मैं नहीं सीख पाया)।
    एक ठिगने कद का दोस्त जो चित्र अच्छे बनाता था, उसके रूक-रूक के बोलने का अंदाज सबको बहुत हंसाता था। मगर जब कुछ अन्य साथियों को मालूम पड़ा कि वो ‘‘चर्मकार’’ मोहल्ले में रहता है। तो बहुत से लड़के-लड़कियां उससे दूर रहने लगे और बात करना भी बन्द कर दिया था।
    यह बात हमारे संयोजक साथी को समझते देर नही लगी, एकदिन उन्होंने एक चर्चा रखी। चकमक क्लब में हम 18-20 लड़के-लड़कियां गोल घेरे में बैठ गये और शुरू की बातचीत। संयोजक साथी (षाकीर भाई) ने कहा कि ‘‘क्या आप जानते हैं कि जातियां कैसे बनी? हम लोग सूरज, चांद और सांप की पूजा क्यों करते हैं?..............।
    उन्होंने (षाकीर भाई) सुनाया एक लम्बा किस्सा और हम लोग सुनते चले गये। मुझे याद है उन्होंने न तो किसी को डांटा था न किसी को उपदेष दिया था, उन्होंने सिर्फ जातियों के बनने की कहानी/इतिहास सुनाया था और इसमें मदद ली थी प्रोजेक्ट और स्लाइड शो की, उसके बाद उस ठिगने कद के लड़के, जो चर्मकार मोहल्ले में रहता था, के प्रति हमारा व्यवहार सकारात्मक हो गया था। अब लोग फिर से उसके चित्रों को देखकर उसके रूक-रूक कर बोलने के अंदाज पर फिर से सहज ही हंसते-मुस्कुराने लगे थे।
    हमारे गांव के एक सेवानिवृत्त (65-70 वर्ष के) प्रधानाध्यापक के प्रति बच्चों-बड़ों सभी की राय थी कि वो पागल हंै और ज्यादातर लोग उन्हें तरह-तरह से चिढाते थे और वो गालियां बकते थे, वो एक बार हमारे चकमक क्लब में आ गये । हम 8-10 लड़के-लड़कियां हक्के बक्के रह गये। संयोजक साथी (षाकीर पठान) ने हमें आंखों-आंखों में इषारा करते हुए कहा कि आप अपना काम करते रहे..... और उन्होंने उन तथाकथित पागल प्रधानाध्यापक को चकमक क्लब के बारे में पूरी जानकारी दी, वो प्रधानाध्यापक धैर्यपूर्वक सुन रहे थे, बीच-बीच में कुछ सवाल पूछ रहे थे, कुछ देर पुस्तकालय में कुछ किताबें देखी और फिर मुस्कुराते हुए हाथ मिलाकर शाकीर भाई से जाने की इजाजत ली। संयोजक साथी ने भी मुस्कुराकर कहा - ‘‘और आइयेगा’’।
    एक बार संयोजक के साथ उनके घर हम 2-3 लड़के मोहर्रम के बाद रोट खाने जा रहे थे। रास्ते में वही प्रधानाध्यापक कुछ बड़-बड़ाते हुए मिले, उन्होंने हमारी तरफ देखकर कहा- ‘‘षाकीर दो मिनट इधर आना यार’’, उनके बड़बड़ाने, अजीब तरह से हिलने-डुलने और हमारी तरफ देखने के कारण हम भी सहम गये थे। मुझे लगता था कि पागल से दूर ही रहना चाहिए। मगर शाकीर भाई उनके पास गये। शाकीर भाई के पास जाने पर प्रधानाध्यापक महोदय ने कहा ‘‘षायद मेरे कुर्ते में कीड़ा घुस गया है’’। सचमुच कुर्ते में कीड़ा था, पीठ की तरफ जो उन्होंने एक हाथ से पकड़ रखा था और एक हाथ से अपना कुर्ता नहीं निकाल पा रहे थे। शाकीर भाई ने कुर्ते के ऊपर से कीड़ा पकड़ा और प्रधानाध्यापक महोदय ने अपना कुर्ता निकाला, झटकारा और फिर पहन लिया। हमारी तरफ देख कर मुस्कुराये और बोले ‘‘थैंक यू यार’’।
    चकमक क्लब से जुड़ने के शुरूआती पड़ाव के ही ऐसे कई उदाहरण है, अनुभव हैं जहां पर हम पाते थे कि वहां के संयोजक/स्रोत साथियों का आम/लीक से हटकर दुनिया को देखने का अपना ही तरीका था। वहां जाने वाले हम कई बच्चे शायद इन्हीं घटनाओ, अनुभवों, वृतांतों से ही सीख रहे थे कि हर इंसान का सम्मान होना चाहिए।
    हम भी चकमक क्लब की इस संस्कृति को जिंदा रखने का ही प्रयास करते थे। किसी उलझन या द्वंद की स्थिति में क्या करें क्या न करें? हमारे निर्णयों में प्रेरणा स्रोत बने है।                    आज भी सोचता हूं तो लगता है कि सचमुच चकमक क्लब ऐसी जगह थे जहां पर मैं नहीं रहा होता तो जाति धर्म और तरह तरह की ऊँच नीच से ग्रस्त आदमी होता।
सम्पर्क-  ेनदपसण्मकद/हउंपसण्बवउ
फोन- 09549743203

मेरा चकमक से जुडना और सीखना

मैं और चकमक क्लब                                 इमरान खान
मेरा चकमक क्लब से जुड़ना
 मेरे साथ मेरा दोस्त अफरोज़ पढ़ता था जो मेरे साथ रोज शाम को खेलता था। मेरे पापा और उसके पापा दोस्त थे इसलिए मैं उसके घर जाया करता था।    
एक दिन मैं अपने दोस्त अफरोज के घर गया वहा。 मैं रोज उसे लेने जाता था, क्योंकि हम क्रिकेट खेलने जाते थे। पर उस दिन अफरोज ने कहा- मैं नहीं जाナ。गा। मैंने पूछा क्येां ? उसने कहा अब मैं शाकिर भैया के साथ कुछ सीखता हू。। और उसने मुझे कागज के कुछ खिलौने दिखायें। मैंने उससे पूछा -यार वो क्या पैसे से सिखाते है। तब अफरोज ने कहा, नहीं। मैंने कहा आज मुझे भी अपने साथ लेकर चलेगा। और उस दिन मैं अफरोज के साथ गया। वहा。 सब बच्चे जो मेरे मौहल्ले के थे गोला बनाकर बैठे थे। जब मैं अन्दर गया तो एक भैया ने मुझे बुलाकर मेरा नाम बड़े प्यार से पूछा मैंने अपना नाम बताया। फिर भैया ने अपना नाम बताया मैं शाकिर हू。। और रोज सभी बच्चों को गीत सुनता हू。। फिर भैया ने सुनील ओर ताहिर को बुलाया और कहा सुनील ओरीगाॅमी सिखाता है। और ताहिर कहानी सुनाता हैं। मैंने सोचा यार अपने साथ तो खेलते हैं पर कितने बड़े-बड़े काम करते है। फिर सुनील ने कहा चल गोले में बैठ जा, शाकिर भैया गाना सुनाऐंगे। फिर मैं कागज के खिलौने बनाना सिखाナ。गा। जब मैं गोले में जगह देख रहा था तो ताहिर ने मुझे एक लड़की के पास बैठा दिया मैं डरते-डरते बैठ गया। पहली बार किसी लड़की के पास बैठा था। मन में डर भी लग रहा था कि कहीं हल्ला ना लग जाये। फिर शकिर भैया ने गीत सुनाया ‘‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये’’ फिर सुनील आया। सभी बच्चे सुनील को सुनील भैया कहकर बुला रहे थे। मैं भी भैया कहने लगा। फिर सुनील ने हमें सितारा बनाना सिखाया और उसके बाद सभी बच्चे समाने रखी बहुत सारी पुस्तकों में से कहानी की पुस्तक निकलवा कर अपने हाथ से एक रजिस्टर में नाम लिख रहे थे। मैंने ताहिर के पास जाकर पूछा- मैं भी ले लूं तो उसने कहा ले ले। मैं पुस्तक लेकर घर चला आया। पापा ने कहा ये पुस्तक कहां से लाया है,  मैंने कहा चकमक क्लब से लाया हूं और फिर मैं पढ़ने लगा।                                                                                                  अब मैं रोज चकमक क्लब जाने लगा और कभी-कभी नहीं जा पाता तो बहुत बुरा लगने लगा। मेरा भाई भी मेरे साथ जाता पर केवल शनिवार के दिन, क्योंकि उस दिन प्रश्न मंच होता था। और जो जीतता था उसे इनाम मिलता था।
 मैं स्त्रोत साथी बना
एक दिन सुनील ने कहा कि आज मैं तुम्हें बहुत सारे खिलौने बनाना सिखाता हू。। क्येांकि तुम आज से स्त्रोत साथी हो और अब तुम सभी को खिलौने बनाना सिखाओगे। मैं उस दिन बहुत खुश था कि अब मुझें सब बच्चे भैया-भैया कहकर बुलायेंगे। वो दिन आज भी याद है। मैं घर गया और पापा को जाकर बोला मैं अब ेत साथी बन गया। पर पापा ने कहा पढ़ाई कौन करेगा। तो मैं उदास हो गया पर मम्मी ने कहा बहुत अच्छा बेटा। मैंने भाई को बताया और दूसरे दोस्तों को भी बताया। बड़ी खुशी का दिन था। दूसरे दिन मैं बहुत सजधज के घर से निकला। चकमक क्लब जाकर के गोले में बैठ गया। तभी सुनील ने कहा आज से इमरान आप सबको खिलौने बनाना सिखाऐगा। तो सब बच्चों ने ताली बजाई। अब मैं खुशी से फूला नहीं समा रहा था। और उसके बाद जब भी मींटिंग होती तो सभी साथी मिलकर तय करते कि कौन से दिन कौन क्या कराएगा। जब कोई नहीं आता तो उसकी जगह कौन सीखाएगा। ऐसा लगता था मानों अब हम सब कुछ कर सकते थे। हम अपना निर्णय स्वंय लेते थे। मन में बहुत अच्छा लगता था। और बहुत खु談ी होती थी। हमें हमारे घर में इस प्रकार की स्वतंत्रता नहीं मिली पर चकमक कल्ब में ये सक कुछ मिला था।
 स्वअनु談ासन
हम कभी पिकनिक पर जाते तो पहले सब बच्चों के यहा。 जाकर पेरेन्ट से परमिशन लेना जब पेरेन्टस पूछते की क्या तुम इतने बच्चों को संभाल कर लाओगे तो कभी बच्चें खुद ही कहते कि हम भैया जो कहते करते है। हम रास्ते में मस्ती नहीं करते केवल मैदान में जाकर ही मस्ती करते है। बच्चों का और हमारा खुद का अनुशासन होता है। जो किसी के द्वारा बनाया नहीं गया था। यह स्व अनुशासन होता है। जो बैगर किसी पर लादे ही आ जाता है। हमारे साथ लड़किया भी पिकनिक पर जाती थी। जब की गाॅंव में इसे गन्दा माना जाता कि लड़के-लड़कीयाॅं साथ वो भी इन लोगों के साथ जो अभी खुद ज्यादा समझदार नहीं है। पर हमारे ग्रुप की लड़कियाॅं खुद घर जाकर अपने मम्मी-पापा को मनाती थी। धीरे-धीरे विश्वास बढ़ता गया। क्योंकि अब हमे गा。व के बड़े भी जानने लगे थे कि, ये चकमक वाले है। पिकनिक पर जाना सभी का एक साथ मिलकर मस्ती करना खेलना और फिर खाना खाते समय एक दूसरे के साथ मिलकर खाना। जब काई हिन्दू या मुस्लिमान नहीं होता था। सब लड़ते थे कि पहले मेरा टिफिन खायेंगे फिर तेरा। मेरी मम्मी ने ये भेजा जरा थोड़ा चख तो सही। ऐसा लगता था मानो सब एक ही परिवार के सदस्य है। और शाम को लौटते हुए सब एक दूसरे को घर तक छोड़ने जाते थे। उस समय मेरे मम्मी पापा कहते थे तू इस तरह दूसरे के बच्चों को साथ ले जाता हैं कभी कुछ हो गया तो मैं उन्हें समझता की हम सब स्वअनुशासन बना कर रखते है। तो पापा का जवाब होता था। तू बड़ा हो गया है। पर जब कभी पापा बाजार में अपने दोस्तों से मिलते तो वे बताते कि आज आपका बच्चा हमारे यहां एक पत्रिका देने आया था। जिसका नाम अंकुर था उस पत्रिका में हमारे बच्चों की कविता ओर चित्र होते है। तुम्हारा बच्चा अपने दोस्तों के साथ बहुत अच्छा काम करता है। हमारे बच्चों को खेल खिलाता है। कविता कहानी की किताबे देता हैं तो फिर मेरे पापा घर आकर मम्मी से बात करते कि तुम्हारा बेटे की सब तारिफ करते है। मैं तो उसे बुद्वु समझता था। स्कूल में भी टीचर अब हमारे साथ अलग सा व्यवहार करते है। क्योंकि हम सब स्कूल में जाकर प्राचार्य से बात करते और हमारे बाल मेले में क्या होता है उसके बारे में बताते और फिर स्कूल में बाल मेला करते थे। अब हम जिन साथियों के साथ पढ़ते थे उन्हें हम कुछ सीख रहे होते हैं। मैं विज्ञान प्रयोग करता था। जो शिक्षक हमें किताबों में पढ़ाते थे। मैं उन्हें स्वंय बच्चों को करना सीखता था। जैसे हाइड्र्ोजन गैस बनना आक्सीजन गैस बनाना आदि। इस कारण अब 談िक्षक भी हमसेे बहुत खुश थे। तब हमें लगता था कि अब हम कुछ कर सकते है। गा。व में जहाॅं भी जाते हमें अलग से लोग जानते लगे थे।
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Monday, December 13, 2010

हम कहतें हैं। हम इस जाहां की तसवीर बदल देगें पर हमारे घर की ही तसवीर हम नहीं बदल पातें हैं। आज भी हमारे घरों हमें अपने से बढों के आगें हर वक्‍त झुका रहना पढता है । महज इस लि‍ऐं की उन्‍होने हमें बडा कि‍या है। हमें समय से खाना दि‍या है पर यह सब कि‍स लि‍ए अपने लि‍ए एक गुलाम तैयार करने के लि‍ए आज भी हम युवा कि‍सी दूसरे धर्म में शादी कर ले तो हमें हमारे ही रहनुमा मार देतें है या उनका चाहि‍ता मार देता है । हम पैसे कामाने वाली माशीनो में महि‍लाओं को कम मौका मि‍लता है वो इस लि‍ए की उनके लि‍ए हमारे इस समाज में एक ऐसी व्‍यवस्‍था को बना दि‍या है या यूं कहे थोप दि‍या है जि‍समें उन्‍हें केवल मर्दो की रहगुजारी करना है

Tuesday, December 7, 2010

हम चाहते है समाज में बदलाव

हम अक्‍सर सोचतें हैं कि‍ समाज में बदलाव कैसे लाऐं पर हमने कभी समाजि‍करण की प्रक्रि‍या को अदलने की बात मन में नहीं आने दी क्‍योकि‍ इस प्रक्रि‍या ने हमारे मन में इसके प्रति‍ इतना वि‍श्‍वास भर दि‍या है की हम उससे बाहर आने की कोशि‍ष भी नहीं कर पातें हैं। अगर हम सच में कुछ करना है तों पहले अपने अन्‍दर भरे उस दूषि‍त वि‍चार को त्‍यागना होगा जो बरसों से हमारे मन को बदले नहीं देता है हमें सामज में एक नई व्‍यवस्‍था को बनाना होगा जहां हम सब का सम्‍मान कर सकें सभी को बरारी से बोलने के मौका दे सकें हम अपने से छोटो को भी सुन सकें एसा मन को बनाना होगा । क्‍योकि‍ जब तक बडें बोलेगें तों समाज फि‍र वो ही पुरानी बातों को अतीत में देखता रहेगा जो बहुत पहले गुजर चुकि‍ है। हमें दूसरो को सुनने के साहस जुटाना होगा ।