जहां सबका सम्मान होता है -सुनील बागवान
नये कपड़े पहने हुए हो, सर में तेल डाला हो, नाजुक हो, गोरा रंग और मृदुभाषी हो........ आदि विषेषताएं लिए हुए बच्चों के प्रति सहज ही किसी को भी प्रेम उमड़ आता है।
लेकिन जिसके कपड़े फटे-पुराने हो, रंग भी काला हो, कद ठिगना हो, चर्मकार मोहल्ले में रहता हो, बातचीत के लिए भाषा समृद्ध ना हो (तुलनात्मक) और पढ़ाई, पेंटिंग या अन्य विधाओं में पिछड़ा हो (मौके न मिल पाने के कारण) तो ऐसे बच्चे समाज में ज्यादातर लोगों की हिकारत के पात्र होते हैं।
कुछ लोग होते हैं जिनके आसपास ऐसी घटना घटे तो उनका मन पसीज जाता है, वे उस तिरस्कृत बच्चे को प्रेम किये बिना रोक नहीं पाते। मगर अफसोस होना हमारे समाज में कोई सामान्य घटना नहीं है।
यह बातें पता नहीं कितने लोगों को विवादास्पद लगे? मगर मेरे बचपन में मैं इन्हीं खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरा हूं और उन घटनाओं को याद करता हूं तो मुझे लगता है कि एक फिसड्डी, कमजोर, चुप रहने वाले और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारो में जन्में बच्चों में भी आत्म विष्वास आत्म सम्मान को बनाए रखने और प्रोत्साहन पाने के लिए किसी का व्यवहार, आसपास के लोगों की प्रतिक्रियाएं, नजरिया बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ उदाहरणों से मैं इसे समझाने का प्रयास करता हूँ।
सन 1992-93 में हम गर्मी की छुट्टी में किसी दिन चकमक क्लब में गोल घेरा बनाकर किसी भ्रमण (नदी पर गये थे) से लौटने के बाद भ्रमण के बारे में चर्चा कर रहे थे। मेरी बोलने की बारी आयी और मैं बोलने वाला ही था कि कुछ लोग मेरी फटी पैंट देख कर हंस रहे थे, क्योंकि मेरी चड्ढी (न्दकमतूमंत) भी दिखाई दे रही थी। इस घटना पर वहां के संयोजक ने 5 मिनट भाषण दिया और सब चुप हो गये थे। मुझे आज भी नहीं मालूम कि चकमक क्लब संयोजक ने क्या कहा था क्योंकि उस समय तो मैं अपने फटे कपड़ों पर हो रही हंसी के कारण रूआसा हो गया था। मगर पल भर में समूह के सब लोग मेरी बात सुनने को तैयार हो गये थे।
उसी समय की बात है मेरे एक दोस्त की हालत तो और भी नाजुक थी। उसके माता पिता हमेषा पुराने कपड़े खरीदकर ही अपने परिवार की जरूरते पूरी करते थे। उस दोस्त के लिए नये कपड़े भी दूसरों के लिए पुराने होते थे और उसकी नये कपड़ों की खुषी में कोई साथ नहीं होता था। सब उसे ‘‘लिलामी कपड़े’’ कहकर चिढाते थे, हंसते थे। पुराने कपड़ों के कारण हंसी का पात्र बनने वाला वह दोस्त चकमक क्लब आने पर संयोजक (षाकीर पठान) से ही बात करता था। शाकीर भाई भी उससे प्रेम से बात करते थे। उसे कुछ न कुछ करने के लिए रोचक काम देते थे चित्र बनाना, पजल्स के साथ माथापच्ची करना, कोई अच्छी चित्र कहानी की किताब देना......... आदि। वह तरह-तरह के मिट्टी के खिलौने बनाता था और भैंस चराता था। मिट्टी की बांसुरी बनाना और भैंस पर बैठकर बजाना उसका पसंदीदा काम था और इसी में शामिल है उसका तार की गाड़ी चलाना। जब वो कभी तार की गाड़ी, मिट्टी की बांसुरी आदि चीजें लेकर आता तो शाकीर भाई उसकी इस अदा को सबके सामने सम्मान पूर्वक तरीके से रखते थे। कुछ दिनों में वो पुराने कपड़े पहनने वाला लड़का सबका प्रिय दोस्त बना। उससे कई दोस्तों ने बांसुरी बनाना और बजाना सीखा (मैं नहीं सीख पाया)।
एक ठिगने कद का दोस्त जो चित्र अच्छे बनाता था, उसके रूक-रूक के बोलने का अंदाज सबको बहुत हंसाता था। मगर जब कुछ अन्य साथियों को मालूम पड़ा कि वो ‘‘चर्मकार’’ मोहल्ले में रहता है। तो बहुत से लड़के-लड़कियां उससे दूर रहने लगे और बात करना भी बन्द कर दिया था।
यह बात हमारे संयोजक साथी को समझते देर नही लगी, एकदिन उन्होंने एक चर्चा रखी। चकमक क्लब में हम 18-20 लड़के-लड़कियां गोल घेरे में बैठ गये और शुरू की बातचीत। संयोजक साथी (षाकीर भाई) ने कहा कि ‘‘क्या आप जानते हैं कि जातियां कैसे बनी? हम लोग सूरज, चांद और सांप की पूजा क्यों करते हैं?..............।
उन्होंने (षाकीर भाई) सुनाया एक लम्बा किस्सा और हम लोग सुनते चले गये। मुझे याद है उन्होंने न तो किसी को डांटा था न किसी को उपदेष दिया था, उन्होंने सिर्फ जातियों के बनने की कहानी/इतिहास सुनाया था और इसमें मदद ली थी प्रोजेक्ट और स्लाइड शो की, उसके बाद उस ठिगने कद के लड़के, जो चर्मकार मोहल्ले में रहता था, के प्रति हमारा व्यवहार सकारात्मक हो गया था। अब लोग फिर से उसके चित्रों को देखकर उसके रूक-रूक कर बोलने के अंदाज पर फिर से सहज ही हंसते-मुस्कुराने लगे थे।
हमारे गांव के एक सेवानिवृत्त (65-70 वर्ष के) प्रधानाध्यापक के प्रति बच्चों-बड़ों सभी की राय थी कि वो पागल हंै और ज्यादातर लोग उन्हें तरह-तरह से चिढाते थे और वो गालियां बकते थे, वो एक बार हमारे चकमक क्लब में आ गये । हम 8-10 लड़के-लड़कियां हक्के बक्के रह गये। संयोजक साथी (षाकीर पठान) ने हमें आंखों-आंखों में इषारा करते हुए कहा कि आप अपना काम करते रहे..... और उन्होंने उन तथाकथित पागल प्रधानाध्यापक को चकमक क्लब के बारे में पूरी जानकारी दी, वो प्रधानाध्यापक धैर्यपूर्वक सुन रहे थे, बीच-बीच में कुछ सवाल पूछ रहे थे, कुछ देर पुस्तकालय में कुछ किताबें देखी और फिर मुस्कुराते हुए हाथ मिलाकर शाकीर भाई से जाने की इजाजत ली। संयोजक साथी ने भी मुस्कुराकर कहा - ‘‘और आइयेगा’’।
एक बार संयोजक के साथ उनके घर हम 2-3 लड़के मोहर्रम के बाद रोट खाने जा रहे थे। रास्ते में वही प्रधानाध्यापक कुछ बड़-बड़ाते हुए मिले, उन्होंने हमारी तरफ देखकर कहा- ‘‘षाकीर दो मिनट इधर आना यार’’, उनके बड़बड़ाने, अजीब तरह से हिलने-डुलने और हमारी तरफ देखने के कारण हम भी सहम गये थे। मुझे लगता था कि पागल से दूर ही रहना चाहिए। मगर शाकीर भाई उनके पास गये। शाकीर भाई के पास जाने पर प्रधानाध्यापक महोदय ने कहा ‘‘षायद मेरे कुर्ते में कीड़ा घुस गया है’’। सचमुच कुर्ते में कीड़ा था, पीठ की तरफ जो उन्होंने एक हाथ से पकड़ रखा था और एक हाथ से अपना कुर्ता नहीं निकाल पा रहे थे। शाकीर भाई ने कुर्ते के ऊपर से कीड़ा पकड़ा और प्रधानाध्यापक महोदय ने अपना कुर्ता निकाला, झटकारा और फिर पहन लिया। हमारी तरफ देख कर मुस्कुराये और बोले ‘‘थैंक यू यार’’।
चकमक क्लब से जुड़ने के शुरूआती पड़ाव के ही ऐसे कई उदाहरण है, अनुभव हैं जहां पर हम पाते थे कि वहां के संयोजक/स्रोत साथियों का आम/लीक से हटकर दुनिया को देखने का अपना ही तरीका था। वहां जाने वाले हम कई बच्चे शायद इन्हीं घटनाओ, अनुभवों, वृतांतों से ही सीख रहे थे कि हर इंसान का सम्मान होना चाहिए।
हम भी चकमक क्लब की इस संस्कृति को जिंदा रखने का ही प्रयास करते थे। किसी उलझन या द्वंद की स्थिति में क्या करें क्या न करें? हमारे निर्णयों में प्रेरणा स्रोत बने है। आज भी सोचता हूं तो लगता है कि सचमुच चकमक क्लब ऐसी जगह थे जहां पर मैं नहीं रहा होता तो जाति धर्म और तरह तरह की ऊँच नीच से ग्रस्त आदमी होता।
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